Monday, March 31, 2008

डा. प्रभात टंडन जी की टिप्पणी

मेरी कविता मृत्यु पर डा. प्रभात टंडन जी ने टिप्पणी करते हुए एक सुंदर काव्य ही सुना दिया..

यह काव्य आप सभी पाठकों के लिए ...

धन्यवाद डा. टंडन जी ...


Dr Prabhat Tandon said...
एक अदद उधडी सी जिंदगी

टांकते-न-टांकते

आगे यों चल देने मे क्या तुक ?

रोना ही रोना

आपा खोना

रोना-कल्पना

अकारथ है

घुटे-२ जीना

केवल विष पीना

भटकना

अकारत है

सार्थकता

कुछ तो संजोये है -

चिरि-चुरमुन की

--चुक-चुक-चिक

चुक-चुक आगे यों चल देने मे क्या तुक ?

घेरे मे जीवन

आंखॊं पर पट्टियां

-यातना

निरंतरता

लीक-लीक गाडी

चाबुक -दर-चाबुक

-भागना

निरंतरता

मशीनी करिशमे-

कट-पिट-चिट-पट

कुछ रुक

आगे चल देने मे क्या तुक?

एक अदद उधडी सी जिंदगी

डांकते -न-टांकते

आगे चल देने मे क्या तुक ?

Wednesday, January 16, 2008

मृत्यु

मृत्यु


मरघट पर
बरगद के पेड़ के नीचे
बैठा हुआ सन्नाटा
मुझे सदियों से कोसता रहा है ।

मैं अभी भी उठा नहीं हूँ
उसने मुझे आवाज दे -दे कर
कंठ में पहन ली है विषमाला ।

मैं नितांत अकेलापन चाहता हूँ
मैं अकेला रहना चाहता हूँ
मगर उसी बरगद पर
बैठा चमगादड
सन्नाटे को विषपान करते हुए देखकर
चिल्ला रहा है कब का ।

मुआ ! सोता भी नहीं
सोने देता भी नहीं,
जब कि
मुझे गाढी नींद आ रही है
सू - सू करते हुए सन्नाटे में ।
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अपनी माटी
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