क्षणिकायें
चार विचार, चार क्षणिकाओँ में
हमसफ़र
नश्वर दुनिया को छोडकर
चले जायें हम
किसी शाश्वत सत्य की शोध में
जो हम दोनों को
बांधे हुए है
पिछले कई जन्मों से...
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किसी नदी के किनारे बैठा था में
तुने आहिस्ते से मेरे बगल में
जगह बना ली।
हम देखते रहे .... उठती, ठहरती, रूकती, दौड़ती लहरों को।
शाम ढले चल दिए हम -
में उत्तर में तुम दक्षिण में।
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एक मोड पर हुई
एक छोटी सी मुलाक़ात के बाद
हम चल दिए साथ - साथ।
एक मोड पर आकर
तुमने धीरे से मेरा हाथ थाम लिया।
एक मोड पर
तुने कहा -
मुजे अब पूर्व की ओर जाना है।
तुम चल दिए.
मैं अकेला पश्चिम की ओर डूबने लगा।
-----
समंदर के किनारे
हम चने चबाते - चबाते
देख रहे थे "सन - सेट"।
सूर्य को क्षितिज को चुम्बन देते हुए देख
तुने धर दिया मेरे भाल पर
एक ठन्डा, हल्का सा चुम्बन।
आज भी अपने भाल पर
वही ओठों के "फिन्गर-प्रिन्ट" लिये
ढुँढता हूं तुम्हें
क्षितिज पर डूबते हुए
सूरज के उस पार।
तुम कहां ?
Monday, September 03, 2007
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2 comments:
"आज भी अपने भाल पर
वही ओठों के "फिन्गर-प्रिन्ट" लिये
ढुँढता हूं तुम्हें
क्षितिज पर डूबते हुए
सूरज के उस पार।"
काफी सशक्त एवं भावनात्मक अभिव्यक्ति है.
आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया एवं आपकी रचनाओं का अस्वादन किया. आप अच्छा लिखते हैं, लेकिन आपकी पोस्टिंग में बहुत समय का अंतराल है. सफल ब्लागिंग के लिये यह जरूरी है कि आप हफ्ते में कम से कम 3 पोस्टिंग करें. अधिकतर सफल चिट्ठाकार हफ्ते में 5 से अधिक पोस्ट करते हैं. किसी भी तरह की मदद चाहिये तो मुझ से संपर्क करे webmaster@sararhi.info -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
Sir, You are seriously genius. Sorry for giving comment in English in the blog which is for Hindi.
Lekin aap sahi he bahut hi achchha likhate ho....
Mind blowing....
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