क्षणिकायें
चार विचार, चार क्षणिकाओँ में
हमसफ़र
नश्वर दुनिया को छोडकर
चले जायें हम
किसी शाश्वत सत्य की शोध में
जो हम दोनों को
बांधे हुए है
पिछले कई जन्मों से...
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किसी नदी के किनारे बैठा था में
तुने आहिस्ते से मेरे बगल में
जगह बना ली।
हम देखते रहे .... उठती, ठहरती, रूकती, दौड़ती लहरों को।
शाम ढले चल दिए हम -
में उत्तर में तुम दक्षिण में।
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एक मोड पर हुई
एक छोटी सी मुलाक़ात के बाद
हम चल दिए साथ - साथ।
एक मोड पर आकर
तुमने धीरे से मेरा हाथ थाम लिया।
एक मोड पर
तुने कहा -
मुजे अब पूर्व की ओर जाना है।
तुम चल दिए.
मैं अकेला पश्चिम की ओर डूबने लगा।
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समंदर के किनारे
हम चने चबाते - चबाते
देख रहे थे "सन - सेट"।
सूर्य को क्षितिज को चुम्बन देते हुए देख
तुने धर दिया मेरे भाल पर
एक ठन्डा, हल्का सा चुम्बन।
आज भी अपने भाल पर
वही ओठों के "फिन्गर-प्रिन्ट" लिये
ढुँढता हूं तुम्हें
क्षितिज पर डूबते हुए
सूरज के उस पार।
तुम कहां ?
Monday, September 03, 2007
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