न जाने कितनी बात हुई
न जाने कितनी किश्तों में
* * * * *
तमाशा देखनेवालो ! बजाओ एक-दो ताली,
यहां धरती के होठों पर छायी है हरियाली;
भिगोती हुई सूरज के किरनों की बौछारें,
बिछा देती है अवनि के मधूर वक्ष पर लाली.
* * * * *
शाम के ढलते हुए सूरज को मैंने देखा,
एक आह निकली और हो गया सवेरा.
* * * * *
जमाने भर की यादों को समेटा जा रहा दिल में,
तुम्हारे साथ गुजरे जो, वही बस याद है मुझको.
* * * * *
Saturday, December 15, 2007
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