एक घंटे की मुलाकात
इतनी बोझिल होगी
यह आज ही पाया.
तुम चले गये ...
हम पर्वतों पर चढे थे,
मैं कहां समंदर के किनारे आ पहुंचा ?
हमने छू ली थी ऊंचाई चट्टानों की,
मैं कहां घिर गया हवा के झोंकों में ?
हवा के हरेक झोंके के स्पर्श से
एक तीर निकल जाता है आरपार .
हरबार लबों पर आ जाता है,
तुम्हारा नाम .
हर पल एक-एक साल की तरह बीतता है
जब रात को तेरी यादों का झोंका
छू लेता है मुझे .
बुदबुदों की तरह हर लम्हा
एक घाव दे कर जाता है,
तुम्हारे साथ गुजारी हुई हर पल
आंखों के सामने से गुजरती है .
मैं तुम्हें आवाज देता हूं
मगर
मेरी आवाज कहां ? . . .
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