Tuesday, July 31, 2007
Thursday, July 26, 2007
समंदर में
कभी कस्ती, कभी तूफ़ां, कभी लहरें समंदर में;
कई यादें, कई आंसू, कई चहरे समंदर में.
वहां था पानी ही पानी, नहीं शबनम की दो बुंदें;
अरे! आश्चर्य! कोई दे रहा पहरे समंदर में.
मत छेड तू उसको, वह पीछे पीछे दौडेगा;
अरे! ओ डूब जाने के कई खतरे समंदर में.
कितनी सदियों से वह चुपचाप है बैठा;
न जाने कौन है जो है, इतने गहरे समंदर में.
अभी तो सिर्फ़ छुआ था, मुझे वह मेरे बिस्तर पर;
तभी से दौडती है उठती हुई लहरें समंदर में.
कई यादें, कई आंसू, कई चहरे समंदर में.
वहां था पानी ही पानी, नहीं शबनम की दो बुंदें;
अरे! आश्चर्य! कोई दे रहा पहरे समंदर में.
मत छेड तू उसको, वह पीछे पीछे दौडेगा;
अरे! ओ डूब जाने के कई खतरे समंदर में.
कितनी सदियों से वह चुपचाप है बैठा;
न जाने कौन है जो है, इतने गहरे समंदर में.
अभी तो सिर्फ़ छुआ था, मुझे वह मेरे बिस्तर पर;
तभी से दौडती है उठती हुई लहरें समंदर में.
Friday, July 06, 2007
डाक पेटी की सिहरन
अंधियारी गली के किनारे खडे
एक लैंप पोस्ट पर टंगी हुई
डाक पेटी में -
हररोज डाला करता हूँ मैं -
एक ख़त।
मेरा ख़त अन्दर जाते ही
डाक पेटी के बदन में सिहरन
उठती है,
न जाने क्यों ?
एक दिन मैंने पूछा -
"तू क्यों सिहर उठती हो
मेरे ख़त डालने पर ?"
बोली -
" उत्तर न मिलने पर भी
ख़त डाले जा रहे हो ! -
सिहर न उठू तो क्या करूं ?
तूने मुझे वन वे जो बना रखा है ।"
एक लैंप पोस्ट पर टंगी हुई
डाक पेटी में -
हररोज डाला करता हूँ मैं -
एक ख़त।
मेरा ख़त अन्दर जाते ही
डाक पेटी के बदन में सिहरन
उठती है,
न जाने क्यों ?
एक दिन मैंने पूछा -
"तू क्यों सिहर उठती हो
मेरे ख़त डालने पर ?"
बोली -
" उत्तर न मिलने पर भी
ख़त डाले जा रहे हो ! -
सिहर न उठू तो क्या करूं ?
तूने मुझे वन वे जो बना रखा है ।"
बिदाई पर
कभी कभार
एक लम्हा
छूट जाता है हमारे पीछे ही
दीवारों पर लिखा तो
मिटा सकते हैं हम
लेकिन
दीवारों के जिस्म में लिखा
कहॉ पोछ सकते हैं कभी !
एक लम्हा
छूट जाता है हमारे पीछे ही
दीवारों पर लिखा तो
मिटा सकते हैं हम
लेकिन
दीवारों के जिस्म में लिखा
कहॉ पोछ सकते हैं कभी !
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