(१)
मेरी आंखों में उमडते हुए समंदर की हरएक बुंद में
तेरी तस्वीर बंद है .
तेरी हरएक तस्वीर को मैं झांका करता हूं
चोरी-चोरी, चूपके-चूपके ।
मेरे होठों पर कई दिनों से
तितली बैठने नहीं आयी ।
मेरी आंखों में कई दिनों से
एक कटी-पतंग उड रही है ।
मेरे कानों में निरव स्वर ने
झंकार देना छोड दिया है ।
मेरी अंगूलियों ने स्पर्श संवेदना
गंवा दी है ।
मैं एक बुत-सा बन गया हूं -
मुझे पारसमणि की तलाश है ।
तुम कब आओगी ?
(२)
तुम कब आओगी ?
रात के अंधेरों ने
मुझे बिस्तर पर तडपते हुए देखा है ।
कभी-कभार खुली आंखें
सपना देख रही होती है ।
बगल में रहे पेड के पत्तों की खडखडाहट
झांका करती है ,
मेरे बिस्तर पर , जो मेरे जिस्म से
भरा पडा होता है ।
चूपके-चूपके याद दस्तक दे जाती है
मेरे उद्विग्न मन के पट पर
और
उस रात मैं ज़िंदा जलाया जाता हूं
- उन यादों के हाथों , जो तेरे जाने के बाद आती है ।
मेरे कानों में तेरे अटहास की आवाज़
गुंज़ने लगती है .
उस दिन मेरा बिस्तर मुझे
मेरी आंखों के नीचे गिला हुआ मिलता है
फिर मैं अपने आपको पुछ बैठता हूं
तुम कब आओगी ?
(३)
तुम आओगी या नहीं ?
अध खुली आंखों मैं इंतज़ार ने
अभी-अभी टपकना शुरू किया है ।
टेबुल पर पडी किताब के पन्ने
छत पर लटके पंखे से उलटते रहते है ।
तुम आओगी या नहीं
यह मुझे नहीं पता
मगर
हररोज़ तुम्हारी याद सपनों में आकर
मुझे जागने को विवश कर देती है ।
कभी उत्तर मिलेगा या नहीं
कि
तुम आओगी या नहीं ?
2 comments:
बढ़िया है. लिखते रहें, इन्तजार है और कविताओं का.
भावों का बेहतरीन संगम…
बहुत सुंदर!!!
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